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राहों की कश्मकश...:प्रदीप लाल आर्य

राहों की कश्मकश...


राहों की  कश्मकश में,
मैं भी उलझ गया..
जाना कहाँ था? और
 कहाँ मैं पहुँच गया..?

 सोचा न था जीवन..
ऐसे भी खेल खिलयेगा..
कश्मकश  भरे राह पर,
अकेला छोड़ जायेगा।

राहों का अम्बार लगाकर
आँखों को मेरी चकराकार,
अब यह खेल भी चोखा है,
यह सपना न देखा था।

समझ नहीं आता मुझे,
किस पथ को मै आह भरूँ?
देख ले ईश्वर व्यथा मेरी,
तू ही बता अब क्या करूँ?

मैंने भी तो इस जग से,
कुछ उम्मीदें जोड़ी थी।
मेरे ही सपनों से क्यूँ...?
ईश्वर तु खिलवाड़ करे।

हे ईश्वर !
मैं भी तो हूँ भक्त तुम्हारा,
कुछ तो मुझ पर दया करो?
पचपन से पूजा है तुमको,
तुम ही बेडा पार करो।


मन का उदगार....

प्रदीप आर्य
ग्राम - पुजार गाँव
mob. 9756461704
www.pradeeplalarya.blogspot.com

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